
POCSO Act यानी ‘Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012’ भारत सरकार द्वारा बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया एक विशेष कानून है। इस कानून का उद्देश्य बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों को रोकना, पीड़ितों को न्याय दिलाना और दोषियों को कड़ी सजा देना है। POCSO Act के अंतर्गत कई महत्वपूर्ण फैसले आए हैं, जिनमें सजा बरकरार रखने से यह स्पष्ट हुआ है कि न्यायपालिका बच्चों के हित में कड़े कदम उठा रही है।
POCSO Act के तहत आने वाले मामलों में सजा बरकरार रहने के कुछ प्रमुख उदाहरण:
दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला एक मामले में, जहां आरोपी ने नाबालिग बच्ची के साथ यौन शोषण किया था, वहाँ उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि बच्चों के खिलाफ ऐसे अपराधों की सजा में कोई ढील नहीं दी जानी चाहिए। अदालत ने कहा कि समाज में बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है और ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कठोर कार्रवाई आवश्यक है।सुप्रीम कोर्ट के निर्देशसुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में कहा है कि POCSO Act के तहत दोषी पाए गए अपराधियों की सजा को कम नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बच्चों के यौन शोषण के मामलों में सख्त सजा ही एक प्रभावी निवारक उपाय हो सकता है।
महाराष्ट्र की एक सजा बरकरार रखने वाली घटना महाराष्ट्र की एक निचली अदालत द्वारा दोषी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, जिसे उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा। इस फैसले में अदालत ने कहा कि बच्चों के यौन अपराधों के मामलों में न्यायपालिका का रुख सख्त होना चाहिए और दोषियों को कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिए।
POCSO Act में सजा बरकरार रखने के ये फैसले बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा और न्यायपालिका की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। इनके माध्यम से यह संदेश जाता है कि यौन अपराधियों को बख्शा नहीं जाएगा और बच्चों की सुरक्षा के लिए कानून पूरी ताकत से काम करेगा।अंत में, POCSO Act के तहत दिए गए ऐसे फैसले समाज में बच्चों के प्रति जागरूकता बढ़ाने और यौन अपराधों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह कानून बच्चों को सुरक्षित माहौल प्रदान करने और दोषियों को कड़ी सजा दिलाने में एक मजबूत आधार है। इसलिए, बच्चों के हित में न्यायपालिका का यह रुख सराहनीय है और इसे जारी रखना चाहिए।
आन्ध्रप्रदेश राज्य बनाम पी नरसिम्हा एवं अन्य (1994) के मामले में अभियुक्त ने दोनों प्रार्थीयों के द्वारा उसकी सम्मति के विरुद्ध बलात्संग कारित करने का अभि कथन किया था। यह तर्क किया गया था कि अभियुक्त उस समय लैंगिक हमले के बारे में मौन रही थी, जब वह प्रत्यर्थी संख्या के साथ रहना प्रारम्भ करने के ठीक पश्चात् अभियोजन साक्षी 2 को मिली थी और वह यह दर्शाता है
तर्क को स्वीकार नहीं किया गया था, क्योंकि उसके बिल्कुल हल्के चरित्र की लड़की न होने के कारण प्रत्यर्थी संख्या 1 को लैंगिक समागम स्वेच्छापूर्वक अनुज्ञात करने के लिए सहमत नहीं हो सकती थी, जब उसने स्वयं अन्ततः 10-14 दिन के भीतर प्रत्यर्थी संख्या 2 के साथ विवाह कर लिया था। इन परिस्थितियों में प्रत्यर्थी संख्या 1 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध का दोषी अभिनिर्धारित किया गया।
उड़ीसा राज्य बनाम अम्बुरु नायक एवं एक अन्य एआईआर 1992 एससी के मामले में अभियोजन के अनुसार पीड़िता अन्य लड़कियों के साथ दशहरे का त्यौहार देखने गयी हुई थी और जब वे वापस लौट रही थी, अभियोक्त्री उनसे आगे हो गयी थी और जब वे जंगल के अन्दर पहुंचे तब अपीलार्थीगण और दो अन्य व्यक्ति अभियोक्त्री का मुंह दबा दिए थे और जंगल में उसका अपहरण किए थे, उसकी आंखो पर कपड़े की पट्टी बांध दिए थे और उसे मार डालने की धमकी दिए थे, यदि वह शोर मचाएगी और उसे जमीन पर लिटा दिए थे और उसके साथ एक के पश्चात् एक बलात्सग कारित किए थे। वह अभियुक्त को पहचान परेड में पहचानी थी
हाईकोर्ट ने उन्हें इस आधार पर दोषमुक्त कर दिया था कि उसके साक्ष्य की कोई सपुष्टि नहीं हुई थी। जब जंगल में उसका व्यपहरण किया गया था. तब उसे उन्हें देखने का अवसर प्राप्त था। चिकित्सीय साक्ष्य यह संपुष्ट करता है कि उसके गुप्तांग पर क्षतियां थी। इसलिए हाईकोर्ट का आदेश अपास्त किया गया और विचारण कोर्ट के द्वारा अभिलिखित की गयी दोषसिद्धि तथा दण्डादेश को प्रत्यावर्तित किया गया ।
एक मामले में अभियोक्त्री का अभिसाक्ष्य यह था कि अभियुक्त उसे अश्लील चित्र दिखाते हुए उसकी बहन के साथ जंगल में ले गया था उसके गुप्तांग में अपना जननांग डाला था। चिकित्सीय परीक्षक ने पीड़िता के गुप्ताग में लिंग के प्रवेशन की घटना के सम्बन्ध में अभिसाक्ष्य में वर्णित किया था। इस मामले में अभियोक्त्री के योनिच्छद के मात्र फटा हुआ न होने का तथ्य अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य को मिथ्या नहीं बनाएगा। वर्तमान मामले में अभियोक्त्री का अभिसाक्ष्य यह था कि अभियुक्त उसे और उसकी बहन को जंगल में ले गया था। उसने यह अभिसाक्ष्य दिया था कि अभियुक्त ने उन दोनों को घटना को किसी व्यक्ति से बताने के विरुद्ध धमकी दिया था, परन्तु वह घटना को अपनी माँ से बतायी थी प्रतिपरीक्षा में उसका साक्ष्य स्थिर बना रहा था। उसकी बहन, चक्षुदर्शी साक्षी ने संपुष्टिकारी कथन किया था दोषसिद्धि उचित थी।
तुरपति माजसैया बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य 2005 कि. लॉ ज 568 (ए.पी.) के मामले में चिकित्सीय साक्ष्य स्पष्ट रूप में इस अभियोजन प्रकथन का समर्थन करता है कि बलात्संग का अपराध अभियोजन साक्षी 5 के यथाविरुद्ध आरोपित किया गया था। यह निःसंदेह सत्य है. जहाँ तक अन्य वस्तुओं की जब्ती का सम्बन्ध है, पंच साक्षियों को विद्रोही घोषित किया गया था परन्तु जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (छ) से सम्बन्धित अपराध का सम्बन्ध है, साक्ष्य सष्ट है अभियोजन साक्षी 5 और 6 का साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा भली-भांति संपुष्ट है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि अभियोजन ने अभियुक्त के दोष को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (छ) के अधीन साबित किया था।
पीड़िता के माता-पिता बलात्संग का परिवाद पुलिस के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अनिच्छुक होंगे, क्योंकि वे यह सोच सकते हैं कि पीड़िता का भविष्य नष्ट हो जाएगा। इन परिस्थितियों के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब अथवा प्रथम सूचना के कोर्ट तक पहुंचने में विलम्ब इस मामले में अभियोजन मामले को नामंजूर करने का आधार हो सकता था, जब तक यह दर्शाने के लिए सामग्री न हो कि विलम्ब का प्रयोग अभियोजन के द्वारा मिथ्या रूप में अनेक व्यक्तियों को फसाने के लिए किया गया था।
अशोक बारक्या डालवी बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2006 क्रि लॉ ज 1531 के प्रकरण में अभियोक्त्री 14 वर्ष की आयु की अवयस्क लड़की थी। उसकी चचेरी बहन उसे मिथ्या बहाने से उसके माता-पिता के घर से ले गयी थी। चचेरी बहन और दो अभियुक्त उसे एक अन्य शहर में लॉज में ले गये थे। दोनो अभियुक्तगण उसकी चचेरी बहन की उपस्थिति में उसे पेप्सी के साथ मिली हुई मदिरा पीने के लिए विवश करने के पश्चात् दो दिन तक उसके साथ बलात्संग कारित किए थे।
अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वसनीय था और यह दर्शाता था कि उसके साथ अमानवीय ढंग से बलपूर्वक लैंगिक समागम कारित किया गया था, जिसे चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा संपुष्ट किया गया था। परिवाद दर्ज कराने में विलम्ब को सम्यक रूप में स्पष्ट किया गया था। लॉज के प्रबन्धक का साक्ष्य यह दर्शाता था कि अभियुक्त सुसंगत तारीखों पर अभियोक्त्री के साथ रुका था। उस आश्रम, जहाँ पर अभियुक्त अभियोक्त्री को ले गया था के सन्त का साक्ष्य यह दर्शाते हुए था कि वह उस समय सामान्य नहीं थी और कष्ट में थी । अभियोक्त्री की चचेरी बहन का साक्ष्य यह दर्शाता था कि उसके साथ अभियुक्त के द्वारा पूर्ववर्ती अवसर पर उसी तरह का व्यवहार किया गया था। इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी थी।
