
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हसदेव अरण्य क्षेत्र के एक गांव के निवासियों को दिए गए सामुदायिक वन अधिकारों को रद्द करने पर सवाल उठाने वाली याचिका ख़ारिज कर दी है. इसी क्षेत्र में अडानी समूह की एक सहायक कंपनी दो कोयला खदानों का संचालन करती है

नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हसदेव अरण्य क्षेत्र के एक गांव के निवासियों को दिए गए सामुदायिक वन अधिकारों को रद्द करने पर सवाल उठाने वाली एक याचिका खारिज कर दी है, जहां अडानी समूह की एक सहायक कंपनी दो कोयला खदानों का संचालन करती है.
स्क्रॉल की रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च न्यायालय का 8 अक्टूबर को पारित यह आदेश सरगुजा जिले के घठबार्रा गांव से संबंधित है, जहां अडानी माइनिंग परसा पूर्व और केते बासन (पीईकेबी) कोयला खदानों का संचालन करती है.
यह ब्लॉक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड के स्वामित्व में है और पूरी तरह से राजस्थान सरकार के स्वामित्व में है.
फैसले के दौरान जस्टिस राकेश मोहन पांडे ने कहा कि घठबार्रा के ग्रामीणों को तीन सामुदायिक वन अधिकार अधिकार देने वाला 2013 का आदेश त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि 2012 में ही भूमि का खनन के लिए उपयोग किया जा चुका था.
2013 का यह आदेश वन अधिकार अधिनियम के तहत एक जिला स्तरीय समिति द्वारा पारित किया गया था.
उल्लेखनीय है कि वन अधिकार अधिनियम एक ऐसा कानून है जो आदिवासी और वनवासी समुदायों को उन जंगलों और भूमि पर कानूनी अधिकार देता है जिन पर वे पीढ़ियों से रहते और उपयोग करते आ रहे हैं.
न्यायाधीश ने 8 अक्टूबर को कहा कि सामुदायिक वन अधिकारों को रद्द करके इस ‘गलती’ को ‘सुधार’ लिया गया है और इस कारण अधिकार प्रदान करने वाला आदेश शुरू से ही कानूनी रूप से अमान्य है.
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति का संघर्ष
गौरतलब है कि उच्च न्यायालय में यह याचिका शुरू में घठबार्रा गांव की वन अधिकार समिति द्वारा दायर की गई थी, जो वन अधिकार अधिनियम के तहत गठित एक संस्था है.बाद में नागरिक समाज संगठन हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति भी इस याचिका में शामिल हो गई. साथ ही कई अन्य व्यक्ति भी शामिल हो गए, जिन्होंने खुद को घठबार्रा गांव का निवासी बताया.हालांकि, वन अधिकार समिति ने बाद में याचिका वापस ले ली, जिसके बाद हसदेव वन बचाओ संघर्ष समिति ने इस मामले में मुकदमा लड़ा.
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि जिला स्तरीय समितियों को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं है, और दावा किया कि सामुदायिक वन अधिकार रद्द करने से पहले ग्रामीणों को सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया.इस पर उच्च न्यायालय ने कहा कि हालांकि, याचिका 2016 में दायर की गई थी, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने 2011, 2012 और 2015 के कोयला खनन आवंटन या वन डायवर्जन की अनुमति देने वाले आदेशों को चुनौती नहीं दी थी.न्यायाधीश ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता यह बताने में विफल रहे कि उन्होंने 2022 में अलग-अलग याचिकाओं में क्षेत्र के भूमि अधिग्रहण को चुनौती दी थी, जिन्हें खारिज कर दिया गया था. न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने पीठ से महत्वपूर्ण तथ्य छिपाए थे.अदालत ने कहा कि राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड ने पिछले 10 वर्षों में खनन का पहला चरण पूरा कर लिया है और उसे 2022 में खनन का दूसरा चरण शुरू करने की मंज़ूरी भी दे दी गई है.न्यायाधीश ने कहा, ‘…तब से तीन साल बीत चुके हैं और घठबार्रा गांव के निवासियों के व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकारों से संबंधित दावे, यदि कोई हों, तो उन्हें नकद में मुआवज़ा दिया जा सकता है.’अखबार के अनुसार, राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को 2011 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा सैद्धांतिक मंज़ूरी दी गई थी. खनन के दोनों चरणों के लिए वन क्षेत्र परिवर्तन की अनुमति 2012 में दी गई थी.हालांकि, 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने 200 से ज़्यादा कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द कर दिए थे – हसदेव अरण्य स्थित परसा कोयला ब्लॉक उनमें से एक था.2015 में केंद्र ने कोयला खदान विशेष प्रावधान अधिनियम पारित किया, जिसके तहत राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को कोयला ब्लॉक का नए सिरे से आवंटन किया गया.